Wednesday, October 7, 2009

पतकार की चड्डी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है

“सीधे फिल्म सिटी से” अंक - 6

एक वैधानिक चेतावनी और इतने सरे बापों को पाकर मेरा सांड लेख अब आगे बढ़ता है. चलिए… इस बार आप को पत्रकार के “प्रकार” बताते हैं. वाह!!! सुनने और सुनाने में भी अच्छा लगता है. आँख बंद करके… पांच बार बोलिए…
पत्रकार के प्रकार....
भई, अरे बोलिए… इसके बाद आगे पढियेगा...
क्या हो जाता है...
मिला जवाब…?
हो जाता है ना सब उल्टा पुल्टा... तो भई, पत्रकार के दोनों प्रकार उल्टा पलटा ही है. जी हाँ… पत्रकार के दो प्रकार हैं…
पहला -- जो पत्रकार है.
दूसरा -- पत(न)कार है.
अंतर वर्तनी में सिर्फ “त” और “त्र” का ही नहीं है. देखने में दोनों शब्द एक जैसे ही हैं. वैसे ही पतकार, पत्रकार की वेश भूषा में दिखता है. तब दोनों एक जैसे दिखते हैं.
पत्रकार-- अंतर “त” और “त्र” में
पत्रकार के “त्र” से त्रस्त होते हैं…
कौन?
नेता, अभिनेता, व्यापारी, समाज का हर वो शख्स जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है और करता है. यहाँ तक कि संपादक, मालिक, उसके तथाकथित और सहयोगी भी त्रस्त होते हैं, पत्रकार से. कुर्ता पायजामा और श्रीलेदर की चप्पल पहने वो शख्स किसी भी जगह आपको दिख सकता है. चश्मा और लिंक की 5 रुपैये वाली पेन उसके प्रमुख हथियार हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिलने वाला खाने का पैकेट वो सबसे नज़रें बचाकर अपने अख़बार से मिले खादी के झोले में धीरे से सरका देता है. बाद में वो पैकेट अपने बच्चों को देता है, अगर शादी शुदा हुआ तो. “अगर शादी शुदा हुआ तो” कहने का मतलब ये है कि इनकी शादी नहीं होती या यूँ कहे कि इनसे कोई शादी नहीं करता. भारतीय राजनीति के मौजूदा सोच और स्वरुप पर ये कई पन्ने लिख या बोल सकते है बिना रुके… विवेकानंद, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, जय प्रकाश नारायण जैसे लोग इनके आदर्श होते हैं. वामपंथी तो ये होते ही हैं… मार्क्स और लेनिन इनके लेखों में अक्सर आते जाते रहते हैं. खबरों की तह तक जाने की इनकी बीमारी होती है. बिना डरे ये किसी के बारे में लिख या बोल देते हैं. बाद में लात भी खाते हैं और जंतर-मंतर के सामने अपने दो-चार पत्रकार बंधुओं के साथ धरने पे बैठ जाते हैं. कोई भी लालच इन्हें सुधार नहीं सकता. माना कि लतखोरी इनमें कूट-कूट कर सत्य की तरह भरी होती है. दिखने में ये निरीह मनुष्य तिलचट्टे की तरह कठोर होते हैं. जो भष्टाचार रुपी एटम बम से भी बच जाते हैं. वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं. अखबार के दफ्तर के बाहर चाय की दूकान पर व्यवस्था को गरियाते इन्हें देखा जा सकता है. “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे कचरा कहा जाता है”. और अगर गलती से आ भी जाये तो ये डेंजरसली लो यानि लो वेस्ट जींस और डीप डाउन टॉप पहनने वाली बॉब कट महिला कर्मचारियों की संगत में आकर सुधर जाते हैं. या फिर टिक्कीधारी ये पत्रकार टीकर लिखने जैसे बेहद मामूली काम में लगा दिए जाते हैं. यानि एक पत्रकार की असमय मौत.
पतकार - अंतर वही “त” और “त्र” में…
पतकार के “त” का मतलब तिकड़मी होता है. इससे बड़ा तिकड़मबाज़, मानव योनी में जन्मा कोई नहीं होता है. इन्ही से चैनल की टीआरपी बनती है. अख़बार का सर्कुलेशन बढ़ता है. नेता जी चुनाव जीतते हैं. व्यापारी ऐड देता है. अभिनेता की फिल्म हिट होती है. लिवाइस की जींस, वुडलैंड का जूता और प्रोवोग की शर्ट में ये किसी भी एसयूवी से उतरते दिख जायेंगे, जिसपर प्रेस लिखा हो. रेबैन और केविन केन का चश्मा इनको बेहद पसंद है. ब्लैक बेरी और नोकिया इ सीरिज पर ये ऑफिस के इम्पोर्टेंट ईमेल चेक करते हैं. मालबोरो की सिगरेट इनकी गाड़ी के डैश बोर्ड पर हमेशा मिलेगी. सुबह 7 बजे इन्हें देखो या रात साढ़े दस बजे… ये हमेशा नहाये और साफ़ सुथरे दिखेंगे. मंहगे डीओ और हेअर जेल के बिना ये कहीं नहीं जाते है. इनसे अच्छी इंग्लिश सिर्फ NRI ही बोल सकते हैं… भले ही ये हिंदी चैनल में काम करें... यहाँ तक कि पानी भी मांगते हैं तो सिर्फ इंग्लिश में.
पतकार की चड्ढी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है. और हाँ… ये अपने आप को जर्नलिस्ट कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. विजय माल्या, अनिल अम्बानी, अमर सिंह जैसे लोग इनके आदर्श होते है. ये काफी फ्लैग्जिबल होते है… “विचारधारा” में. या यूँ कहें कि मनीधारा के आगे इनको कोई धारा पसंद नहीं.
संस्कार, मूल्य, भावना, देशहित जैसी कबाड़ चीज़ों को ये नहीं ढ़ोते. ये महिला और पुरुष को समान नज़र से देखते हैं. और उनसे मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हैं. महंगे फाइव स्टार बार में ये अक्सर पाए जाते हैं. फिल्म सिटी में रात को गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच पार्किंग लॉट में ठेले से लिए गिलास और पीनट्स के साथ ये रात की शुरुआत करते हैं. इनके शब्दों में “मूड मेकिंग”. और हाँ… ये इंटर्नस से बड़े प्यार से मिलते हैं. उनको अपना विजिटिंग कार्ड देकर कॉल करने को जरूर कहते हैं. अगर कॉल आ गया और इन्टर्न समझदार “हुआ” या “हुई” तो फिर वहीं गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच का पार्किंग लॉट, जर्नलिस्ट की एसयूवी, चाइनीज विंडो से आया चिकन मंचूरियन, ठेला का प्लास्टिक गिलास, सॉल्टेड पीनट्स और इन्टर्न... जर्नलिस्ट की ये अँधेरी मगर रंगीन रात, इन्टर्न के लिए सुनहरी सुबह लेकर आती है.
और फिर एक पत्रकार के जन्म से पहले ही उसे बछडे की तरह बधिया कर सांड से बैल बना दिया जाता है यानि “पतकार”. ये बधिया करने का ही नतीजा है कि पत्रकार के “त्र” में लटकने वाला डंडा उखड़कर “त” बन जाता है और पत्रकार हो जाता है पत(न)कार....

तो ये रहे सारे के सारे दिग्गजों और पिद्दियों के नाम जिसने मुझे धकियाया है

सीधे फिल्म सिटी से”… अंक - 5

अरे हांगलती हो गई. कोई भी धारावाहिक से पहले एक वैधानिक चेतावनी दी जाती है. मैं तो ये बताना भूल ही गया. तो हांवैधानिक चेतावनी सुन लेंअगर पढ़ना-लिखना आता हो तो पढ़ लें.
सीधे फिल्म सिटी सेनामक कॉलम में छपने वाले सारे लेख यथार्थ के बेहद करीब हैं. या कह सकते हैं कि यथार्थ है. इसमें प्रयुक्त नाम और स्थान वास्तविक हैं. अगर आपका नाम किसी पात्र से मिलता-जुलता हो तो ये मात्र संयोग नहीं है, मैंने जानबूझकर आपका नाम लिखा है. अगर आपने ऐसा कभी कहा या किया नहीं है तो भी निश्चिंत रहिये. मीडिया में रहते हुए आज कल करेंगे ही. हांख़बरदार मीडिया जो ये साईट है, मेरे लिखे हर शब्द, मात्रा, वाक्य और लेख के लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझे भड़काया गया है ये सब लिखने के लिए और इसमें प्रमुख हांथ, लात, अंगुली, माथा, सर सब ख़बरदार मीडिया के राजीव जी, समीर जी, प्रभात जी और आकाश जी का है. कुछ लोग परोक्ष रूप से अंगुली किये हैं, उनमें लोकेश जी और विनीत जी हैं. विनीत जी का नाम यहां इसलिए लिख रहा हूं कि कभी आगे वे जरुर आग मैं घी डालेंगे.
तो ये रहे सारे के सारे दिग्गजों और पिद्दियों के नाम जिसने इस कॉलम को शुरू करने के लिए मुझे धकियाया है. हां तो भाई अब जिसको जो उखाड़ना है उखाड़ ले. वैसे भी मीडिया में कोई कुछ उखाड़ नहीं सकता बस थोडी देर के लिए हिला भर सकता है. और हम ठहरे साधू-संत टाईप के दो नम्बर आदमी भईयाकोई फर्क नहीं पड़ता. तो बेकार में मेरे पीछे टाईम लगा के अपना फालतू टाईम किसी मुझसे फालतू या आप अपना काम करने मैं लगायें. ये रहा वैधानिक चेतावनी. तो मिल गया और डीकोरम भी पूरा हो गया. मेरा लेख भी जायज हो गया. पहले बेचारा नाजायज था अब इतने सारे बाप मिल गए इसे अब तो बस ये सांड की तरह फिल्म सिटी में घूमेगा और जिसकी चाहे मारेगा

Tuesday, October 6, 2009

गुरु तहलका मचा दिए हैं… सबका जो कपडा उतार रहे हैं… दिल खुश हो गया है…

“सीधे फिल्म सिटी से”… अंक - 4
अरे बाप रे एक और चैप्टर आ रहा है सामने से.....एक दम सीधे मेरे ऊपर ही इसकी नज़र पड़ी भईया...अब छिप नहीं सकते। “संभव भाई नमस्ते… ई का कर रहे हैं, आज कल ख़बरदार मीडिया में” ....गुरु तहलका मचा दिए हैं.... सबका जो कपडा उतार रहे हैं। दिल खुश हो गया है। “अरे नहीं भाई… मैं तो खाली फिल्म सिटी घुमा रहा हूँ”। “नहीं भाई…। हम तो दिन में तीन-तीन बार खोलते हैं कि गुरु इस बार किसकी लंगोट उतारोगे....ए गुप्ता जी दू गो चाय बढाइयेगा।”ये हैं के। सी। दूबे…। बनारस के रहने वाले, लेकिन दिल्ली में 10 साल हो गए। इंटर पास कर दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में ग्रेजुएशन...फिर छात्र नेता...फिर लॉ की पढाई॥और दो मर्डर केस, जिसकी आज तक पेशी में जाते हैं. वकील तक का मानना है कि मर्डर इन्होने नहीं किया है, पर ये खुद ही हल्ला करते हैं कि मारा इन्होने ही था. चलिए पूछ लेते हैं.“दूबे जी आप के केस का क्या हुआ ?” क्या होगा संभव भाई….चलिए रहा है. जानते ही हैं, देश में 55000 से ज्यादा मुकदमा लंबित है… मेरा भी वही हाल है. “दूबे जी, वो सिंह जी कह रहे थे कि झूठ्ठे आप का नाम है केस में” ऊ साला सिंहवा का जानता है…. अरे यूनिवर्सिटी में तो लड़कियन के साथ घूमता था… आज बड़का पत्रकार बनता है. कल की ही बात है उसे ई भी नहीं पता था कि 77 के इमरजेंसी में बिहार के मुख्यमंत्री कौन थे, और अपने आपको चैनल का राजनीतिक पत्रकार बताता है.“लेकिन दूबे जी उ बोलते बढ़िया हैं, कल देखे थे... उनका लाइव"ए संभव भाई… कभी ट्रेन या बस में कंघी, चश्मा, किताब बेचने वाले को देखे हैं, कितना बढ़िया बोलता है.... बस इन लोगों को यही मान लीजिये. हां… थोडा बहुत हेर फेर कर के सब वही बोलता है. चलिए कुछ शब्द बताते हैं, देखिएगा...दस लाइन कोई बोलेगा तो हर एक शब्द चार से पांच बार जरुर इस्तेमाल करेगा. कौन से शब्द भाई हमें भी बताइयेगा ?“क्या कुछ खबर है....कहीं ना कहीं ये बात सामने....ऐसी
अटकले...कयास...अंदेशा लगाया जा रहा है कि...विश्वस्त सूत्रों से पता चला....सनसनीखेज मामला सामने आया है.....सबसे पहले जो खबर आ रही है.....इत्यादि. इतना


बोल दूबे जी विजयी मुस्कान बिखेरे और हम सब हंसते हुए गुप्ता जी की दुकान से चल दिए.

Tuesday, September 22, 2009

पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है

पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है
(सीधे फिल्म सिटी से).... अंक - 3
क्या संभव जी रजनीगंधा से यहां आते ही थक गए, अचानक गुप्ता जी कोल्ड्रिंक्स की बोतल बढ़ाते हुए बोले। मैं कुछ कहता कि सामने एक होंडा सिटी कार आ कर रुकी. काले रंग का शीशा नीचे गिरा और एक लड़की ने 500 का नोट बढ़ाते हुए मालबोरो का पैकेट मांगा. बाबा रे॥ये क्या...स्टीयरिंग व्हील्स पर सुघीर जी.....कल रात 377 पर रामदेव से उलझे हुए थे… और यहां एक सुन्दर बाला के साथ. पीछे का शीशा उतरा तो दो साफ़-सुथरे… कह सकते हैं चिकने चुपड़े लड़के बैठे हुए थे. लगता है एंकर बाबू काफी ब्रॉडमाइंडेड हैं. इनका टीम वर्क में काफी विश्वास है. कहते हैं ना कि इनपुट और आउटपुट अगर एक साथ काम करें तभी टीआरपी बढ़ सकती है, और ये चारो लगता है कि आज प्राइम टाइम में टीआरपी बढा कर ही मानेंगे.
गुप्ता जी चेंज देकर कहते हैं... संभव भाई, पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है. लेकिन नर हो या मादा पहले आपको इसी होंडा सिटी के पीछे वाली सीट पर बैठना पड़ता है. और हां… अब तो वो कानून भी बनने जा रहा है, क्या बोलते हैं....377।
ओहो... सामने से “संकाल” जी भी आ रहे हैं. पहले प्रिंट में थे, अभी-अभी इलेक्ट्रॉनिक में आये हैं. हमेशा खिसियाए रहते हैं. जैसे पूरी फिल्म सिटी इन्हें चिढा रही हो. संकाल जी खिचड़ी काले-सफ़ेद बाल....मुह में हमेशा तिरंगा गुटका. पहले कुरता जींस और चप्पल में और अब शर्ट-पैंट और जूते में. बिहार के मधुबनी के रहने वाले बात-बात में माँ बहन की गाली, गुटके की पीक के साथ निकलती है. साल दो साल पहले चालू हुए अख़बारों को छोड़ दे तो पत्रकारिता के 26 सालों में शायद ही कोई अख़बार उनकी सेवा से वंचित रहा होगा. फिलहाल एक हिंदी चैनल के खेल संपादक हैं. उनका सबसे बड़ा दुश्मन उनका ज्ञान है और उस पर से गलती कर बैठे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ के. तो क्या कहते हैं ना, एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा,
कल ही की बात है…. अपने चैनल पर भारतीय टीम के सलेक्शन पर चीफ सलेक्टर श्रीकान्त से लाइव कर रहे थे, कि उससे पूछ बैठे…. कैसे हो श्रीकान्त, मुझे पहचान रहे हो ना....मैं संकाल....1987 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर हिंदुस्तान की तरफ से था. फिर क्या था… न्यूज़ हेड ने तुंरत ही लाइव ड्रॉप करने का इरादा किया और पीसीआर ने काट कर एंकर को हेंड ओवर कर दिया। संकाल जी उसी बात पर भड़के हुए हैं.
अरे बाप रे...एक और चैप्टर आ रहा है सामने से....
उस चैप्टर के बारे में पढिये अगले बुधवार को.....

इस लेख को आप www.khabardarmedia.com पर भी पढ़ सकते हैं।

Friday, September 18, 2009

गुप्ता जी का ठेला इन्टर्न के लिए भी, और सीईओ के लिए भी....

“सीधे फिल्म सिटी से” अंक - 2
गुप्ता जी का ठेला इन्टर्न के लिए भी, और सीईओ के लिए भी....
हाँ, तो गुप्ता जी के ठेले के सामने ही भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जन्म हुआ। गुप्ता जी ने प्रसव पीडा भी देखा और छठी भी मनाई है.... ठेले पर समय के साथ ताम झाम भी बढा है. खुबसूरत रंगबिरंगे कोलड्रिंक्स के बोतल, पानी के बोतल. पानी बेली और हाईटेक ब्रांड के नहीं बाकायदा किनले और एक्वाफीना के होते हैं. भाई... ठेला गुप्ता जी का है फूल्ली ब्रांडेड...
सिगरेट, जी हाँ शायद ही ऐसा सिगरेट का ब्रांड हो जो गुप्ता जी के पास ना हो। इन्टर्न से लेकर सीईओ तक के लिए अलग-अलग किस्म के सिगरेट रखते हैं गुप्ता जी...... नए आये इन्टर्न का सफ़र कैसे छोटी गोल्ड फ्लैक से क्लासिक रेगुलर होते हुए अल्ट्रामाइल्ड, गोल्ड फ्लैक किंग, इंडिया किंग, कार्टर, मोर से होते हुए मालबोरो और बेंसन हेजेज़ तक पहुँचता है.... गुप्ता जी के ठेले ने इसकी गवाही दी है. और हां, कुछ हो ना हो ठेले पर प्लास्टिक के गिलास, मुंग दाल की पैकेट और सॉल्टेड पीनट कभी भी मिलेगा. इसकी जरुरत आगे आपको समझ में आएगी.....
भारत के इतिहास की तरह ठेले पर भी समय-समय पर नॉएडा पुलिस के आक्रमण हुए हैं और हर बार ठेला दुबारा दिल्ली की तरह खडा हो गया है.... फिल्म सिटी का ये ठेला कुछ वैसा ही है, जैसे युवा पत्रकार अत्याचार सहते हुए भी पत्रकारिता में जमा रहता है..... और बड़े ही दुःख के साथ कहना पर रहा है कि जिस ने आत्याचार नहीं सहा, वो पत्रकार नहीं.... ये अलग बात है कि आप चाचा....मामा...काका... ताऊ...मौसा...फूफा....या फिर जी....जा के थ्रू आये हों... लेकिन हम जानते हैं कि आप मानेंगे नहीं। काहे कि ई शोध का विषय है...
हाँ, तो अब छोडिए छिछालेदर... आगे बढ़ते हैं. गुप्ता जी का ठेला आगे भी कई प्रसंग में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. टर्निंग पर आ गए हैं. देखते हैं, कहाँ जाएँ... लेकिन, पहले थोडा सुस्ता लेते हैं......

Monday, September 14, 2009

सीधे फिल्म सिटी से

एक लंबे अवकाश के बाद फ़िर हाजिर हूँ एक नए कॉलम के साथ ...........
फिल्म सिटी की कहानी, कुमार संभव की जुबानी.... अंक-1
सीधे फिल्म सिटी से, जी हाँ…। जो कहा है शायद समझ में भी आ गया होगा। कोई भूमिका नहीं… बस सीधे फिल्म सिटी से. कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है, बस पढिए और मजे लीजिए. सबसे पहले इस फिल्म सिटी का मुख्तसर सा बायोडाटा. न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑथोरिटी. घबराइए मत... इसे शॉर्ट फॉर्म में NOIDA कहा जाता है. मायावती ने इसे गौतम बुद्ध नगर बनाया लेकिन इसे NOIDA के नाम से ही जाना जाता है. हाँ… तो भाइयों मै फिर बीजेपी की तरह मुद्दे से भटक रहा हूँ. वापस ट्रैक पर आते हैं. नोयडा के सेक्टर 16A में फिल्म सिटी है. अन्दर आने के तीन रास्ते हैं. दो कानूनी और एक गैर कानूनी. गैर कानूनी इसलिए कि इस रास्ते को देखकर ऐसा लगता है, कभी यहाँ से रास्ता था, लेकिन अब लोहे के चार चार फिट के खंभे लगाकर बंद कर दिया गया है. बाइक, रिक्शा और पैदल सवार कुछ कलाबाजी दिखा कर फिर भी फिल्म सिटी में दाखिल हो जाते हैं. ये कुछ ऐसा ही है जैसे बड़े चैनलों में कुछ उस तीसरे रास्ते से कलाबाजी दिखाकर घुस जाते हैं. अन्दर तो आ गए… और अगर आपके पास कार नहीं है तो भी आप इसी रास्ते से आयेंगे. क्या करे… मीडिया जगह ही ऐसी है…. अगले किसी और अंक में इस रास्ते की चर्चा विस्तार से करेंगे. चलिए हम भी इसी रास्ते से अन्दर चलते हैं. तो भैया हम हैं अब 16A उर्फ़ फिल्म सिटी में… कुछ 200 मीटर पैदल चलने और बड़ी बसों, चमचमाती कारों को पार कर हम एसबीआई एटीएम के सामने सड़क के उस पार गुप्ता जी के ठेले पर हैं. अब आपको ठेले के बारे में कैसे बताएं… बस इतना जान लीजिए भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसी ठेले के सामने पैदा हुआ. बस आज इतना ही. आगे अगला अंक पढिए. देखिए मैंने कोई ब्रेक नहीं लिया और एक ही एपिसोड में कितना बताऊँ. आराम से बैठिए, अगले अंक में गुप्ता जी के ठेले से शुरुआत करेंगे. और हाँ…. ये दुआ सलाम की मुझे आदत नहीं. बस इतना कहूँगा कि मस्त रहो और रहने दो॥

ये लेख आप www.khabardarmedia.com पर भी पढ़ सकते हैं।

Thursday, March 26, 2009

लोकसभा चुनाव खूंटी

पहले तो इतने दिनों तक गायब रहने के लिया माफ़ी मांगता हूँ. माफ़ तो आप कर ही देंगें और नहीं भी करेंगे तो मेरा क्या कर लेंगे. चलिए मजाक ख़त्म करते हैं और आप को खुशखबरी सुनते हैं. तो बात ये है की आप का ये ब्लॉगर दोस्त महुआ न्यूज़ के लिए लोकसभा चुनाव कवर कर रहा है झारखण्ड में. मेरे लिए ये एक बेहतरीन मौका है अपने देश को जानने का. साथ ही मैने ये फैसला किया है कि पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान अपने अनुभवों को आप तक इस ब्लॉग के माध्यम से रखूँगा . तो इसी कड़ी में पेश है पहला संस्मरण ..........

"सम्भव भाई ये खूंटी कितनी दूर है ............." रमेश जो हमारे चैनल में ऑनलाइन एडिटर है ने बड़े सोचकर पूछा। मेरे कुछ कहने से पहले ही कैमरामेन नफीस ने कहा "यार अभी रांची से निकले नही और परेशान हो गए"। मैने कहा "रमेश यार बस 45-50 KM , जल्दी पहुँच जाएंगे"।
तो लोकसभा चुनाव की कवरेज झारखण्ड में हमने खूंटी से शुरू की। अभी अभी बने इस छोटे से जिले में लगभग सभी लोग सभी को जानते हैं। किसी चैनल का OB VAN यहाँ पहुँचना कोतुहल का कारण बना। माथे पर लाल टीका और लाल मोटर साइकिल लिए हमारा स्ट्रिंगर सुभाष चौक पर स्वागत के लिय खड़ा मिला । गाड़ी रुकते ही उसने सड़क पर पान का पीक थूकते हुए बोला "इहाँ मत रुकिए नेताजी लोग स्कूल प मिलेगा ...........सब पहुँच गिया होगा " । हमारे ड्राईवर गणेश को इशारे से गाड़ी पीछे लाने को कह वो आगे बढ़ गया।
हम पहुँचे एक बेहद ख़ूबसूरत स्कूल में, मिशनरी का ये स्कूल मुझे नॉएडा फ़िल्म सिटी के अमिटी स्कूल की याद दिला गया। आप सोच रहे होंगे की झारखण्ड में इतनी तरकि, तो आप को बता दूँ की यहाँ लगभग हर कसबे और शहर में मिशनरी के स्कूल होते हैं जिन्हें गवर्न करने के लिए एक चर्च होता है। इनका मकसद जो भी होगा पर ये काम अच्छा कर रहे हैं। कम से कम इस स्कूल को देखकर तो यही लगता है।
हमें यहाँ संसद का संग्राम नाम का एक प्रोग्राम शूट करना था। मेरी टीम setup लगाने में व्यस्त हो गई। और मुझे मौका मिला वहां के लोगों से बात करने का। हमारे स्ट्रिंगर ने वहां के कुछ छुट भईया नेताओं से परिचय कुछ यूँ कराया " सर इ रामसुंदर दास हैं......... दलित समाज में इनका खुबे चलती है......... इहाँ का पास तगड़ा वोट बैंक हैं।
सर इ कांग्रेस से हैं पहिले बीजेपी में थे.......... खूंटी भर में इन से जादा रुपया किसी के पास नही है........ सर हम कहते हैं कांग्रेस हो या बीजेपी सबे इन्ही को टीकेट दे रहा है"। दांत निपोरते हुए नेता जी हें हें कर रहे थे बोले "सम्भव जी नैट हॉल्ट में सेवा का मौका दें" ।
मेरी नज़र किनारे खड़े कुछ ग्रामीणों पर पड़ी। वो अपने साथ कुछ कागज़ लिए हुए थे। दुबले पतले सूखे हुए से लोग सहमे खड़े थे। मै उनके पास गया पुछा आप लोग किस गावं से आयें हैं? उन के बीच से एक नवजवान आगे आया और बोला "आप उहाँ जा सकते है, बरका गावं का नाम सुने हैं कभी....अरे जइए अपना काम कीजिए ...... नेता लोग आगये हैं" . मैं चुप-चाप खडा था लोकतंत्र के चोथे स्तम्भ पर इस युवक ने सीधा सवाल उठाया था. अगले पल एक बूढा ने कहा " बाबू बुरा मत मानिये गा......इ ऐसे ही बोलता है..... क्या है कि हम लोग का गाँव दो तरफ नदी से घिरा है खूंटी आने जाने के लिए पिछले ३० साल से हम लोग पूल बनाने का मांग करते हैं. मांग पास भी हो जाता है इ देखिये कागज़ उस बूढा ने मुझे दुसरे के हाथ से कागज़ और नक्शा लेकर दिखाने लगा। बूढा आगे बताता है "सर हम लोग रांची में मुख्यमंत्री तक से मिले हैं". मैने कहा "फिर कुछ नहीं हुआ". "हुआ साहेब टेंडर निकला बिल बना पास हुआ बहूत कुछ हुआ.......सब पूल के नाम पे कमाता है".
तभी नेगी ने जोर से आवाज़ लगाई "Sir we are ready to shoot"
और इस तरह हम ने लोकसभा चुनाव कि कवरेज शुरू की
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पतकार की चड्डी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है

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“सीधे फिल्म सिटी से” अंक - 6

एक वैधानिक चेतावनी और इतने सरे बापों को पाकर मेरा सांड लेख अब आगे बढ़ता है. चलिए… इस बार आप को पत्रकार के “प्रकार” बताते हैं. वाह!!! सुनने और सुनाने में भी अच्छा लगता है. आँख बंद करके… पांच बार बोलिए…
पत्रकार के प्रकार....
भई, अरे बोलिए… इसके बाद आगे पढियेगा...
क्या हो जाता है...
मिला जवाब…?
हो जाता है ना सब उल्टा पुल्टा... तो भई, पत्रकार के दोनों प्रकार उल्टा पलटा ही है. जी हाँ… पत्रकार के दो प्रकार हैं…
पहला -- जो पत्रकार है.
दूसरा -- पत(न)कार है.
अंतर वर्तनी में सिर्फ “त” और “त्र” का ही नहीं है. देखने में दोनों शब्द एक जैसे ही हैं. वैसे ही पतकार, पत्रकार की वेश भूषा में दिखता है. तब दोनों एक जैसे दिखते हैं.
पत्रकार-- अंतर “त” और “त्र” में
पत्रकार के “त्र” से त्रस्त होते हैं…
कौन?
नेता, अभिनेता, व्यापारी, समाज का हर वो शख्स जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है और करता है. यहाँ तक कि संपादक, मालिक, उसके तथाकथित और सहयोगी भी त्रस्त होते हैं, पत्रकार से. कुर्ता पायजामा और श्रीलेदर की चप्पल पहने वो शख्स किसी भी जगह आपको दिख सकता है. चश्मा और लिंक की 5 रुपैये वाली पेन उसके प्रमुख हथियार हैं. प्रेस कॉन्फ्रेंस में मिलने वाला खाने का पैकेट वो सबसे नज़रें बचाकर अपने अख़बार से मिले खादी के झोले में धीरे से सरका देता है. बाद में वो पैकेट अपने बच्चों को देता है, अगर शादी शुदा हुआ तो. “अगर शादी शुदा हुआ तो” कहने का मतलब ये है कि इनकी शादी नहीं होती या यूँ कहे कि इनसे कोई शादी नहीं करता. भारतीय राजनीति के मौजूदा सोच और स्वरुप पर ये कई पन्ने लिख या बोल सकते है बिना रुके… विवेकानंद, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, जय प्रकाश नारायण जैसे लोग इनके आदर्श होते हैं. वामपंथी तो ये होते ही हैं… मार्क्स और लेनिन इनके लेखों में अक्सर आते जाते रहते हैं. खबरों की तह तक जाने की इनकी बीमारी होती है. बिना डरे ये किसी के बारे में लिख या बोल देते हैं. बाद में लात भी खाते हैं और जंतर-मंतर के सामने अपने दो-चार पत्रकार बंधुओं के साथ धरने पे बैठ जाते हैं. कोई भी लालच इन्हें सुधार नहीं सकता. माना कि लतखोरी इनमें कूट-कूट कर सत्य की तरह भरी होती है. दिखने में ये निरीह मनुष्य तिलचट्टे की तरह कठोर होते हैं. जो भष्टाचार रुपी एटम बम से भी बच जाते हैं. वैसे अब ये लुप्तप्राय प्रजाति हैं. कहीं कहीं पाए जाते हैं. अखबार के दफ्तर के बाहर चाय की दूकान पर व्यवस्था को गरियाते इन्हें देखा जा सकता है. “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसे कचरा कहा जाता है”. और अगर गलती से आ भी जाये तो ये डेंजरसली लो यानि लो वेस्ट जींस और डीप डाउन टॉप पहनने वाली बॉब कट महिला कर्मचारियों की संगत में आकर सुधर जाते हैं. या फिर टिक्कीधारी ये पत्रकार टीकर लिखने जैसे बेहद मामूली काम में लगा दिए जाते हैं. यानि एक पत्रकार की असमय मौत.
पतकार - अंतर वही “त” और “त्र” में…
पतकार के “त” का मतलब तिकड़मी होता है. इससे बड़ा तिकड़मबाज़, मानव योनी में जन्मा कोई नहीं होता है. इन्ही से चैनल की टीआरपी बनती है. अख़बार का सर्कुलेशन बढ़ता है. नेता जी चुनाव जीतते हैं. व्यापारी ऐड देता है. अभिनेता की फिल्म हिट होती है. लिवाइस की जींस, वुडलैंड का जूता और प्रोवोग की शर्ट में ये किसी भी एसयूवी से उतरते दिख जायेंगे, जिसपर प्रेस लिखा हो. रेबैन और केविन केन का चश्मा इनको बेहद पसंद है. ब्लैक बेरी और नोकिया इ सीरिज पर ये ऑफिस के इम्पोर्टेंट ईमेल चेक करते हैं. मालबोरो की सिगरेट इनकी गाड़ी के डैश बोर्ड पर हमेशा मिलेगी. सुबह 7 बजे इन्हें देखो या रात साढ़े दस बजे… ये हमेशा नहाये और साफ़ सुथरे दिखेंगे. मंहगे डीओ और हेअर जेल के बिना ये कहीं नहीं जाते है. इनसे अच्छी इंग्लिश सिर्फ NRI ही बोल सकते हैं… भले ही ये हिंदी चैनल में काम करें... यहाँ तक कि पानी भी मांगते हैं तो सिर्फ इंग्लिश में.
पतकार की चड्ढी भी किसी पत्रकार के पूरे शरीर के कपडों से महँगी होती है. और हाँ… ये अपने आप को जर्नलिस्ट कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. विजय माल्या, अनिल अम्बानी, अमर सिंह जैसे लोग इनके आदर्श होते है. ये काफी फ्लैग्जिबल होते है… “विचारधारा” में. या यूँ कहें कि मनीधारा के आगे इनको कोई धारा पसंद नहीं.
संस्कार, मूल्य, भावना, देशहित जैसी कबाड़ चीज़ों को ये नहीं ढ़ोते. ये महिला और पुरुष को समान नज़र से देखते हैं. और उनसे मधुर सम्बन्ध स्थापित करते हैं. महंगे फाइव स्टार बार में ये अक्सर पाए जाते हैं. फिल्म सिटी में रात को गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच पार्किंग लॉट में ठेले से लिए गिलास और पीनट्स के साथ ये रात की शुरुआत करते हैं. इनके शब्दों में “मूड मेकिंग”. और हाँ… ये इंटर्नस से बड़े प्यार से मिलते हैं. उनको अपना विजिटिंग कार्ड देकर कॉल करने को जरूर कहते हैं. अगर कॉल आ गया और इन्टर्न समझदार “हुआ” या “हुई” तो फिर वहीं गुप्ता जी के ठेले और चाइनीज गाड़ी के बीच का पार्किंग लॉट, जर्नलिस्ट की एसयूवी, चाइनीज विंडो से आया चिकन मंचूरियन, ठेला का प्लास्टिक गिलास, सॉल्टेड पीनट्स और इन्टर्न... जर्नलिस्ट की ये अँधेरी मगर रंगीन रात, इन्टर्न के लिए सुनहरी सुबह लेकर आती है.
और फिर एक पत्रकार के जन्म से पहले ही उसे बछडे की तरह बधिया कर सांड से बैल बना दिया जाता है यानि “पतकार”. ये बधिया करने का ही नतीजा है कि पत्रकार के “त्र” में लटकने वाला डंडा उखड़कर “त” बन जाता है और पत्रकार हो जाता है पत(न)कार....

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तो ये रहे सारे के सारे दिग्गजों और पिद्दियों के नाम जिसने मुझे धकियाया है

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सीधे फिल्म सिटी से”… अंक - 5

अरे हांगलती हो गई. कोई भी धारावाहिक से पहले एक वैधानिक चेतावनी दी जाती है. मैं तो ये बताना भूल ही गया. तो हांवैधानिक चेतावनी सुन लेंअगर पढ़ना-लिखना आता हो तो पढ़ लें.
सीधे फिल्म सिटी सेनामक कॉलम में छपने वाले सारे लेख यथार्थ के बेहद करीब हैं. या कह सकते हैं कि यथार्थ है. इसमें प्रयुक्त नाम और स्थान वास्तविक हैं. अगर आपका नाम किसी पात्र से मिलता-जुलता हो तो ये मात्र संयोग नहीं है, मैंने जानबूझकर आपका नाम लिखा है. अगर आपने ऐसा कभी कहा या किया नहीं है तो भी निश्चिंत रहिये. मीडिया में रहते हुए आज कल करेंगे ही. हांख़बरदार मीडिया जो ये साईट है, मेरे लिखे हर शब्द, मात्रा, वाक्य और लेख के लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझे भड़काया गया है ये सब लिखने के लिए और इसमें प्रमुख हांथ, लात, अंगुली, माथा, सर सब ख़बरदार मीडिया के राजीव जी, समीर जी, प्रभात जी और आकाश जी का है. कुछ लोग परोक्ष रूप से अंगुली किये हैं, उनमें लोकेश जी और विनीत जी हैं. विनीत जी का नाम यहां इसलिए लिख रहा हूं कि कभी आगे वे जरुर आग मैं घी डालेंगे.
तो ये रहे सारे के सारे दिग्गजों और पिद्दियों के नाम जिसने इस कॉलम को शुरू करने के लिए मुझे धकियाया है. हां तो भाई अब जिसको जो उखाड़ना है उखाड़ ले. वैसे भी मीडिया में कोई कुछ उखाड़ नहीं सकता बस थोडी देर के लिए हिला भर सकता है. और हम ठहरे साधू-संत टाईप के दो नम्बर आदमी भईयाकोई फर्क नहीं पड़ता. तो बेकार में मेरे पीछे टाईम लगा के अपना फालतू टाईम किसी मुझसे फालतू या आप अपना काम करने मैं लगायें. ये रहा वैधानिक चेतावनी. तो मिल गया और डीकोरम भी पूरा हो गया. मेरा लेख भी जायज हो गया. पहले बेचारा नाजायज था अब इतने सारे बाप मिल गए इसे अब तो बस ये सांड की तरह फिल्म सिटी में घूमेगा और जिसकी चाहे मारेगा

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गुरु तहलका मचा दिए हैं… सबका जो कपडा उतार रहे हैं… दिल खुश हो गया है…

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“सीधे फिल्म सिटी से”… अंक - 4
अरे बाप रे एक और चैप्टर आ रहा है सामने से.....एक दम सीधे मेरे ऊपर ही इसकी नज़र पड़ी भईया...अब छिप नहीं सकते। “संभव भाई नमस्ते… ई का कर रहे हैं, आज कल ख़बरदार मीडिया में” ....गुरु तहलका मचा दिए हैं.... सबका जो कपडा उतार रहे हैं। दिल खुश हो गया है। “अरे नहीं भाई… मैं तो खाली फिल्म सिटी घुमा रहा हूँ”। “नहीं भाई…। हम तो दिन में तीन-तीन बार खोलते हैं कि गुरु इस बार किसकी लंगोट उतारोगे....ए गुप्ता जी दू गो चाय बढाइयेगा।”ये हैं के। सी। दूबे…। बनारस के रहने वाले, लेकिन दिल्ली में 10 साल हो गए। इंटर पास कर दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में ग्रेजुएशन...फिर छात्र नेता...फिर लॉ की पढाई॥और दो मर्डर केस, जिसकी आज तक पेशी में जाते हैं. वकील तक का मानना है कि मर्डर इन्होने नहीं किया है, पर ये खुद ही हल्ला करते हैं कि मारा इन्होने ही था. चलिए पूछ लेते हैं.“दूबे जी आप के केस का क्या हुआ ?” क्या होगा संभव भाई….चलिए रहा है. जानते ही हैं, देश में 55000 से ज्यादा मुकदमा लंबित है… मेरा भी वही हाल है. “दूबे जी, वो सिंह जी कह रहे थे कि झूठ्ठे आप का नाम है केस में” ऊ साला सिंहवा का जानता है…. अरे यूनिवर्सिटी में तो लड़कियन के साथ घूमता था… आज बड़का पत्रकार बनता है. कल की ही बात है उसे ई भी नहीं पता था कि 77 के इमरजेंसी में बिहार के मुख्यमंत्री कौन थे, और अपने आपको चैनल का राजनीतिक पत्रकार बताता है.“लेकिन दूबे जी उ बोलते बढ़िया हैं, कल देखे थे... उनका लाइव"ए संभव भाई… कभी ट्रेन या बस में कंघी, चश्मा, किताब बेचने वाले को देखे हैं, कितना बढ़िया बोलता है.... बस इन लोगों को यही मान लीजिये. हां… थोडा बहुत हेर फेर कर के सब वही बोलता है. चलिए कुछ शब्द बताते हैं, देखिएगा...दस लाइन कोई बोलेगा तो हर एक शब्द चार से पांच बार जरुर इस्तेमाल करेगा. कौन से शब्द भाई हमें भी बताइयेगा ?“क्या कुछ खबर है....कहीं ना कहीं ये बात सामने....ऐसी
अटकले...कयास...अंदेशा लगाया जा रहा है कि...विश्वस्त सूत्रों से पता चला....सनसनीखेज मामला सामने आया है.....सबसे पहले जो खबर आ रही है.....इत्यादि. इतना


बोल दूबे जी विजयी मुस्कान बिखेरे और हम सब हंसते हुए गुप्ता जी की दुकान से चल दिए.

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पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है

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पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है
(सीधे फिल्म सिटी से).... अंक - 3
क्या संभव जी रजनीगंधा से यहां आते ही थक गए, अचानक गुप्ता जी कोल्ड्रिंक्स की बोतल बढ़ाते हुए बोले। मैं कुछ कहता कि सामने एक होंडा सिटी कार आ कर रुकी. काले रंग का शीशा नीचे गिरा और एक लड़की ने 500 का नोट बढ़ाते हुए मालबोरो का पैकेट मांगा. बाबा रे॥ये क्या...स्टीयरिंग व्हील्स पर सुघीर जी.....कल रात 377 पर रामदेव से उलझे हुए थे… और यहां एक सुन्दर बाला के साथ. पीछे का शीशा उतरा तो दो साफ़-सुथरे… कह सकते हैं चिकने चुपड़े लड़के बैठे हुए थे. लगता है एंकर बाबू काफी ब्रॉडमाइंडेड हैं. इनका टीम वर्क में काफी विश्वास है. कहते हैं ना कि इनपुट और आउटपुट अगर एक साथ काम करें तभी टीआरपी बढ़ सकती है, और ये चारो लगता है कि आज प्राइम टाइम में टीआरपी बढा कर ही मानेंगे.
गुप्ता जी चेंज देकर कहते हैं... संभव भाई, पैदल से होंडा सिटी का सफ़र चार साल में सिर्फ फिल्म सिटी ही करा सकता है. लेकिन नर हो या मादा पहले आपको इसी होंडा सिटी के पीछे वाली सीट पर बैठना पड़ता है. और हां… अब तो वो कानून भी बनने जा रहा है, क्या बोलते हैं....377।
ओहो... सामने से “संकाल” जी भी आ रहे हैं. पहले प्रिंट में थे, अभी-अभी इलेक्ट्रॉनिक में आये हैं. हमेशा खिसियाए रहते हैं. जैसे पूरी फिल्म सिटी इन्हें चिढा रही हो. संकाल जी खिचड़ी काले-सफ़ेद बाल....मुह में हमेशा तिरंगा गुटका. पहले कुरता जींस और चप्पल में और अब शर्ट-पैंट और जूते में. बिहार के मधुबनी के रहने वाले बात-बात में माँ बहन की गाली, गुटके की पीक के साथ निकलती है. साल दो साल पहले चालू हुए अख़बारों को छोड़ दे तो पत्रकारिता के 26 सालों में शायद ही कोई अख़बार उनकी सेवा से वंचित रहा होगा. फिलहाल एक हिंदी चैनल के खेल संपादक हैं. उनका सबसे बड़ा दुश्मन उनका ज्ञान है और उस पर से गलती कर बैठे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ के. तो क्या कहते हैं ना, एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा,
कल ही की बात है…. अपने चैनल पर भारतीय टीम के सलेक्शन पर चीफ सलेक्टर श्रीकान्त से लाइव कर रहे थे, कि उससे पूछ बैठे…. कैसे हो श्रीकान्त, मुझे पहचान रहे हो ना....मैं संकाल....1987 के ऑस्ट्रेलिया दौरे पर हिंदुस्तान की तरफ से था. फिर क्या था… न्यूज़ हेड ने तुंरत ही लाइव ड्रॉप करने का इरादा किया और पीसीआर ने काट कर एंकर को हेंड ओवर कर दिया। संकाल जी उसी बात पर भड़के हुए हैं.
अरे बाप रे...एक और चैप्टर आ रहा है सामने से....
उस चैप्टर के बारे में पढिये अगले बुधवार को.....

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गुप्ता जी का ठेला इन्टर्न के लिए भी, और सीईओ के लिए भी....

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“सीधे फिल्म सिटी से” अंक - 2
गुप्ता जी का ठेला इन्टर्न के लिए भी, और सीईओ के लिए भी....
हाँ, तो गुप्ता जी के ठेले के सामने ही भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जन्म हुआ। गुप्ता जी ने प्रसव पीडा भी देखा और छठी भी मनाई है.... ठेले पर समय के साथ ताम झाम भी बढा है. खुबसूरत रंगबिरंगे कोलड्रिंक्स के बोतल, पानी के बोतल. पानी बेली और हाईटेक ब्रांड के नहीं बाकायदा किनले और एक्वाफीना के होते हैं. भाई... ठेला गुप्ता जी का है फूल्ली ब्रांडेड...
सिगरेट, जी हाँ शायद ही ऐसा सिगरेट का ब्रांड हो जो गुप्ता जी के पास ना हो। इन्टर्न से लेकर सीईओ तक के लिए अलग-अलग किस्म के सिगरेट रखते हैं गुप्ता जी...... नए आये इन्टर्न का सफ़र कैसे छोटी गोल्ड फ्लैक से क्लासिक रेगुलर होते हुए अल्ट्रामाइल्ड, गोल्ड फ्लैक किंग, इंडिया किंग, कार्टर, मोर से होते हुए मालबोरो और बेंसन हेजेज़ तक पहुँचता है.... गुप्ता जी के ठेले ने इसकी गवाही दी है. और हां, कुछ हो ना हो ठेले पर प्लास्टिक के गिलास, मुंग दाल की पैकेट और सॉल्टेड पीनट कभी भी मिलेगा. इसकी जरुरत आगे आपको समझ में आएगी.....
भारत के इतिहास की तरह ठेले पर भी समय-समय पर नॉएडा पुलिस के आक्रमण हुए हैं और हर बार ठेला दुबारा दिल्ली की तरह खडा हो गया है.... फिल्म सिटी का ये ठेला कुछ वैसा ही है, जैसे युवा पत्रकार अत्याचार सहते हुए भी पत्रकारिता में जमा रहता है..... और बड़े ही दुःख के साथ कहना पर रहा है कि जिस ने आत्याचार नहीं सहा, वो पत्रकार नहीं.... ये अलग बात है कि आप चाचा....मामा...काका... ताऊ...मौसा...फूफा....या फिर जी....जा के थ्रू आये हों... लेकिन हम जानते हैं कि आप मानेंगे नहीं। काहे कि ई शोध का विषय है...
हाँ, तो अब छोडिए छिछालेदर... आगे बढ़ते हैं. गुप्ता जी का ठेला आगे भी कई प्रसंग में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. टर्निंग पर आ गए हैं. देखते हैं, कहाँ जाएँ... लेकिन, पहले थोडा सुस्ता लेते हैं......

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सीधे फिल्म सिटी से

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एक लंबे अवकाश के बाद फ़िर हाजिर हूँ एक नए कॉलम के साथ ...........
फिल्म सिटी की कहानी, कुमार संभव की जुबानी.... अंक-1
सीधे फिल्म सिटी से, जी हाँ…। जो कहा है शायद समझ में भी आ गया होगा। कोई भूमिका नहीं… बस सीधे फिल्म सिटी से. कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है, बस पढिए और मजे लीजिए. सबसे पहले इस फिल्म सिटी का मुख्तसर सा बायोडाटा. न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑथोरिटी. घबराइए मत... इसे शॉर्ट फॉर्म में NOIDA कहा जाता है. मायावती ने इसे गौतम बुद्ध नगर बनाया लेकिन इसे NOIDA के नाम से ही जाना जाता है. हाँ… तो भाइयों मै फिर बीजेपी की तरह मुद्दे से भटक रहा हूँ. वापस ट्रैक पर आते हैं. नोयडा के सेक्टर 16A में फिल्म सिटी है. अन्दर आने के तीन रास्ते हैं. दो कानूनी और एक गैर कानूनी. गैर कानूनी इसलिए कि इस रास्ते को देखकर ऐसा लगता है, कभी यहाँ से रास्ता था, लेकिन अब लोहे के चार चार फिट के खंभे लगाकर बंद कर दिया गया है. बाइक, रिक्शा और पैदल सवार कुछ कलाबाजी दिखा कर फिर भी फिल्म सिटी में दाखिल हो जाते हैं. ये कुछ ऐसा ही है जैसे बड़े चैनलों में कुछ उस तीसरे रास्ते से कलाबाजी दिखाकर घुस जाते हैं. अन्दर तो आ गए… और अगर आपके पास कार नहीं है तो भी आप इसी रास्ते से आयेंगे. क्या करे… मीडिया जगह ही ऐसी है…. अगले किसी और अंक में इस रास्ते की चर्चा विस्तार से करेंगे. चलिए हम भी इसी रास्ते से अन्दर चलते हैं. तो भैया हम हैं अब 16A उर्फ़ फिल्म सिटी में… कुछ 200 मीटर पैदल चलने और बड़ी बसों, चमचमाती कारों को पार कर हम एसबीआई एटीएम के सामने सड़क के उस पार गुप्ता जी के ठेले पर हैं. अब आपको ठेले के बारे में कैसे बताएं… बस इतना जान लीजिए भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसी ठेले के सामने पैदा हुआ. बस आज इतना ही. आगे अगला अंक पढिए. देखिए मैंने कोई ब्रेक नहीं लिया और एक ही एपिसोड में कितना बताऊँ. आराम से बैठिए, अगले अंक में गुप्ता जी के ठेले से शुरुआत करेंगे. और हाँ…. ये दुआ सलाम की मुझे आदत नहीं. बस इतना कहूँगा कि मस्त रहो और रहने दो॥

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लोकसभा चुनाव खूंटी

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पहले तो इतने दिनों तक गायब रहने के लिया माफ़ी मांगता हूँ. माफ़ तो आप कर ही देंगें और नहीं भी करेंगे तो मेरा क्या कर लेंगे. चलिए मजाक ख़त्म करते हैं और आप को खुशखबरी सुनते हैं. तो बात ये है की आप का ये ब्लॉगर दोस्त महुआ न्यूज़ के लिए लोकसभा चुनाव कवर कर रहा है झारखण्ड में. मेरे लिए ये एक बेहतरीन मौका है अपने देश को जानने का. साथ ही मैने ये फैसला किया है कि पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान अपने अनुभवों को आप तक इस ब्लॉग के माध्यम से रखूँगा . तो इसी कड़ी में पेश है पहला संस्मरण ..........

"सम्भव भाई ये खूंटी कितनी दूर है ............." रमेश जो हमारे चैनल में ऑनलाइन एडिटर है ने बड़े सोचकर पूछा। मेरे कुछ कहने से पहले ही कैमरामेन नफीस ने कहा "यार अभी रांची से निकले नही और परेशान हो गए"। मैने कहा "रमेश यार बस 45-50 KM , जल्दी पहुँच जाएंगे"।
तो लोकसभा चुनाव की कवरेज झारखण्ड में हमने खूंटी से शुरू की। अभी अभी बने इस छोटे से जिले में लगभग सभी लोग सभी को जानते हैं। किसी चैनल का OB VAN यहाँ पहुँचना कोतुहल का कारण बना। माथे पर लाल टीका और लाल मोटर साइकिल लिए हमारा स्ट्रिंगर सुभाष चौक पर स्वागत के लिय खड़ा मिला । गाड़ी रुकते ही उसने सड़क पर पान का पीक थूकते हुए बोला "इहाँ मत रुकिए नेताजी लोग स्कूल प मिलेगा ...........सब पहुँच गिया होगा " । हमारे ड्राईवर गणेश को इशारे से गाड़ी पीछे लाने को कह वो आगे बढ़ गया।
हम पहुँचे एक बेहद ख़ूबसूरत स्कूल में, मिशनरी का ये स्कूल मुझे नॉएडा फ़िल्म सिटी के अमिटी स्कूल की याद दिला गया। आप सोच रहे होंगे की झारखण्ड में इतनी तरकि, तो आप को बता दूँ की यहाँ लगभग हर कसबे और शहर में मिशनरी के स्कूल होते हैं जिन्हें गवर्न करने के लिए एक चर्च होता है। इनका मकसद जो भी होगा पर ये काम अच्छा कर रहे हैं। कम से कम इस स्कूल को देखकर तो यही लगता है।
हमें यहाँ संसद का संग्राम नाम का एक प्रोग्राम शूट करना था। मेरी टीम setup लगाने में व्यस्त हो गई। और मुझे मौका मिला वहां के लोगों से बात करने का। हमारे स्ट्रिंगर ने वहां के कुछ छुट भईया नेताओं से परिचय कुछ यूँ कराया " सर इ रामसुंदर दास हैं......... दलित समाज में इनका खुबे चलती है......... इहाँ का पास तगड़ा वोट बैंक हैं।
सर इ कांग्रेस से हैं पहिले बीजेपी में थे.......... खूंटी भर में इन से जादा रुपया किसी के पास नही है........ सर हम कहते हैं कांग्रेस हो या बीजेपी सबे इन्ही को टीकेट दे रहा है"। दांत निपोरते हुए नेता जी हें हें कर रहे थे बोले "सम्भव जी नैट हॉल्ट में सेवा का मौका दें" ।
मेरी नज़र किनारे खड़े कुछ ग्रामीणों पर पड़ी। वो अपने साथ कुछ कागज़ लिए हुए थे। दुबले पतले सूखे हुए से लोग सहमे खड़े थे। मै उनके पास गया पुछा आप लोग किस गावं से आयें हैं? उन के बीच से एक नवजवान आगे आया और बोला "आप उहाँ जा सकते है, बरका गावं का नाम सुने हैं कभी....अरे जइए अपना काम कीजिए ...... नेता लोग आगये हैं" . मैं चुप-चाप खडा था लोकतंत्र के चोथे स्तम्भ पर इस युवक ने सीधा सवाल उठाया था. अगले पल एक बूढा ने कहा " बाबू बुरा मत मानिये गा......इ ऐसे ही बोलता है..... क्या है कि हम लोग का गाँव दो तरफ नदी से घिरा है खूंटी आने जाने के लिए पिछले ३० साल से हम लोग पूल बनाने का मांग करते हैं. मांग पास भी हो जाता है इ देखिये कागज़ उस बूढा ने मुझे दुसरे के हाथ से कागज़ और नक्शा लेकर दिखाने लगा। बूढा आगे बताता है "सर हम लोग रांची में मुख्यमंत्री तक से मिले हैं". मैने कहा "फिर कुछ नहीं हुआ". "हुआ साहेब टेंडर निकला बिल बना पास हुआ बहूत कुछ हुआ.......सब पूल के नाम पे कमाता है".
तभी नेगी ने जोर से आवाज़ लगाई "Sir we are ready to shoot"
और इस तरह हम ने लोकसभा चुनाव कि कवरेज शुरू की

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